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जयपुर ख़ास: ना कोई चटनी–ना आलू छीले जाते, ऐसी लजीज स्वाद कचौरी खाने वालों की लगी रहती हैं भीड़

यूं तो मूंग दाल और प्याज को कचोरी का स्वाद बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है. वहीं समोसे में आलू स्वाद में चार चांद लगाता है. लेकिन जयपुर में आलू और कचोरी के बीच ऐसी दोस्ती हुई कि उसने अपने स्वाद का जादू चारों तरफ बिखेर दिया.

लोगों को यह जायका इतना जबरदस्त लगा कि इसे चखने वालों की भीड़ लगने लगी और लोग आलू की कचोरी में अपनी बारी लगाने के लिए लाइन से इंतजार करने लगे. यही कारण रहा कि 90 साल पहले एक छोटी सी दुकान से शुरुआत करने वाले आज आलू कचोरी के मामले में एक ब्रांड बन चुके हैं, जिनका नाम है संपत की आलू कचोरी.

आज यह जयपुर की भीड़ भरी गलियों में अपने स्वाद की खुशबू बिखेर रही है जिसे चखने वालों का तांता लगा रहता है. लेकिन एक वक्त था 1930 के आसपास का, जब कचोरी में मूंग दाल और समोसे में आलू ही राजे रजवाड़ों की पहली पसंद हुआ करती थी. लेकिन इसी दौरान तकरीबन साल 1933 में संपत राम माहेश्वरी ने आलू और कचोरी के साथ एक नया प्रयोग किया.

तैयार की अपनी खुद की रेसिपी:- संपत राम माहेश्वरी ने उबले हुए आलू का छिलका उतारे बगैर अपना एक सीक्रेट मसाला तैयार किया जिसको कचौरी में भरकर उन्होंने बेहद खस्ता और स्वादिष्ट कचौरी तैयार की. शुरुआत में लोग इसे मूंग दाल की कचौरी समझ कर खाने लगे लेकिन बाद में उन्हें इस कचौरी की खासियत पता लगी और इसी के साथ लोग संपत राम माहेश्वरी के स्वाद के मुरीद बन‌ गए.

संपर्क के पोते चलाते हैं आज साम्राज्य:- आज संपत राम महेश्वरी हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके पोते अनिल माहेश्वरी अपने दादा के साम्राज्य को संभाल रहे हैं. अनिल महेश्वरी इस विषय में बताते हैं कि हमारी कचोरी की दो खासियत है. एक तो कि हम आलू का छिलका नहीं उतारते हैं.

दूसरा दादा संपत के बताए गए सीक्रेट मसाले. जिनके प्रयोग से कचौरी के साथ चटनी की आवश्यकता भी नहीं पड़ती. यह दादा संपत की कचौरियों के साथ एक्सपेरिमेंट का परिणाम ही है कि 90 साल से संपत्त की आलू कचोरी एक ब्रांड बनी हुई है.

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